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Friday, December 30, 2011

नया साल अच्छा होगा !!


हरियाली हो वर्षा होगी
लहराएगी खेती 
पेट भरेगा छत भी होगी
शेर -भेंड एक घाट पियेंगे पानी 
मन मयूर भी नाच उठेगा 
नया साल अच्छा होगा !!
आशु-आशा पढ़े लिखें 
रोजगार भी पाएंगे 
आशा की आशा सच होगी
सास –बहू- माँ बेटी होगी
मन कुसुम सदा मुस्काएगा  
नया साल अच्छा होगा !!
रिश्ते नाते गंगा जल से
पूत-सपूत नया रचते
बापू-माँ के सपने सजते
ज्ञान ध्यान विज्ञानं बढेगा
मन परचम लहराएगा
नया साल अच्छा होगा !!
खून के छींटे कहीं न हो
रावन होली जल जायेगा
घी के दीपक डगर नगर में
राम -राज्य फिर आएगा
मन -सागर में ज्वर उठेगा
नया साल अच्छा होगा !!


सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
30.12.2011
6.35 P.M., U.P.



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Sunday, December 11, 2011

वचपन का प्रेम


वचपन का प्रेम 
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और उस दिन जब तुम 
अपने "उनके" साथ 
अपनी माँ से मिलने आई थी 
दरवाजे की देहरी पर 
दीवार से चिपकी -चुपचाप
मेरी ओर ताक रही थी 
मै किताबों में खोया -व्यस्त -मस्त 
अचानक उस तुम्हारे दरवाजे पर 
नजर का जाना -और फिर 
बिजली कौंध जाना 
जोरदार रौशनी 
ढेर सारी यादें 
तेरा लजाना -लाल चेहरा ले 
घर में भाग जाना 
बचपन की यादें 
बार-बार बिजली सी 
मेरे घर के आस पास 
तेरा चमकना 
छुपा छिपी -आइस पाइस
सरसों के पीले फूल -हरी मटर
आम -महुआ कोयल सी कूक 
मेरा ध्यान बंटाना 
भुंजईन के घर से  
भाद में भूंजा 
आंचल से गर्म दाने 
मेरी हथेली पे दे 
मुझको जलाना 
तेरा चिढाना 
तेरा मुस्कुराना 
पीपल की छाँव 
कितना प्यारा तब ये 
लगता था गाँव 
दूर -दूर तेरा मंडराना 
पास आना 
नजदीकियां बढ़ता था 
खलिहान में साथ कभी 
बैल बन घूमना 
तेरा घुँघरू वाला एक पायल 
खो जाना -माँ की डांट खाना 
मेरे दिल को तडपाया था 
हाथ खाली थे मेरे 
मन मसोस कर रह जाना 
चुपके से नम आँखें ले 
मेरा -सब कुछ सह जाना 
आज मेरे पास सब कुछ है 
पर वो उधार -तेरा प्यार 
दोस्ती -कर्ज चुकाना 
अच्छा नहीं लगता है 
परदेश से आते 
अम्बिया के बाग़ में -उस दिन 
तेरी डोली मिली -
सजी सजाई गुडिया 
नैनों में छलके मोतियों से आंसू
परदे से झाँक 
जैसे था तुझे मेरा इन्तजार 
इतना बड़ा दिल ले 
तुमने अपने कांपते अधरों पे 
ऊँगली रख इशारा किया था 
“डोलीओझल हो गयी थी 
और मै तेराप्रेम” भरा आदेश 
दिल में बसाए 
मौन हूँ -चुप ही तो हूँ 
आज तक ----
लेकिन दीवार से चिपकी 
आज तेरा झांकना 
प्रेम मिटता नहीं 
अमर है प्रेम 
वचपन का प्रेम 
इस दिल में 
और मजबूत हो धंस गया 
फिर एक अमिट छाप छोड़ 
जाने क्या -क्या कह गया 
दो परिवारों का वो प्रेम 
बचा गया -उसे जीवन दे गया 
और तुझे देवी बना 
पूजने को 
मेरे दिल में 
पलकों में 
मूरति  सी सदा सदा के लिए 
मौन रख 
मेरे मुंह पर 
ताला लगा गया !!
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भ्रमर  
.४०-.०६ पूर्वाह्न 
यच पी २८.११.२०११ 



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Saturday, November 19, 2011

सबसे प्यारी "जान" है तू

आइये बेटियों का स्वागत करें भेद-भाव मिटायें ...

यहाँ पढ़ें और आशीष दें उन्हें ....

Tuesday, November 15, 2011

जब अधर छुए तो कांपा तन-मन



मौसम बदला 
बदली थी जमीं !
हर रंग प्यार का बदला था 
खुशियाँ तो हर पग थीं बरसी 
पर हर कुछ नया नया सा था 
इतनी लज्जा संकोच ह्रदय 
ना जाने कैसे फूटी थी 
डर-डर के कोने में बैठी  
उडती तितली ज्यों रूठी थी 
कुछ नयी सोच कुछ सपने थे 
बादल से उड़ते हहर - हहर 
कौंधी बिजली डर भी लगता 
अंधियारा घिर ढाता था कहर 
कितने जन घूँघट खोले देखे 
आँचल लक्ष्मी थे डाल गए 
ना जाने कौन कहाँ के थे 
मै कुछ तो ना पहचान सकी 



आशीष मिला मन बाग़ - बाग़ 
प्रिय की यादों में उलझी थी 
ना काहे सूरज निशा बुलाये 
मन गोरी क्यों ना भांपे रे !
सागर में अगणित ज्वार उठे 
क्यों -चाँद - पहचाने हे !
दीपक की टिम-टिम 
गंध मधुर- रजनी -गंधा -
संग यौवन का 
बन छुई -मुई बिन छुए लरजती 
कभी सिकुड़ती खिल जाती 
ये कली थी खुलने को आतुर 
वो "भ्रमर" कहाँ पर भूला जी ?
कुछ कलियों फूलों में रम कर  
था कहीं मस्त - या सोया था 



कुछ सखियाँ आयीं हंसी गुद-गुदी
फिर तार वाद्य के छेड़ गयीं 
सिहरन फिर उठ के झंकृत तन 
मन की वीणा सुर छेड़ गयी 
खोयी सपनों में बैठी थी 
एक छुवन अधर ज्यों दौड़ गयी 
माथे की बिंदिया चमक गयी 
कुंडल कानों कुछ बोल  गए 
पाँवों के पायल छनक गए 
कंगन कर में थे डोल गए 
थी रात पूर्णिमा जगमग पर 
था चाँद बहुत शरमाया सा 
एक तेज हवा के झोंके से 
"वो" ख्वाब हमारे प्रकट हुए !
जब चिबुक उठाये नैन खुले 
नैना थे दो से चार हुए 
अठरह वर्षों के सपने में 
ना जाने क्या वे झाँक रहे !
जब अधर छुए तो कांपा तन - मन 
मदिरा के सौ सौ प्याले भर 
कामदेव रति धमके 
कुछ मन्त्र कान में बोल  गए 
ग्रीवा पर सांप सरक  कर के 
कुछ क्रोध काम विष लाये थे 
रक्तिम चेहरा यौवन रस से 
घट छलक छलक सावन बन के 
बादल बदली के खेल बहुत 
सतरंगी इंद्र धनुष जैसे 
आनंदित हो बस खोये थे !
कितनी क्रीडा फिर लिपट लिपट 
बेला कलियाँ ज्यों तरुवर पर 
बिजली कौंधी फिर गरज गरज 
बादल मदमस्त भरा पूरा 
थी तेज आंधियां मन में भी 
दीपक ना देर ठहर पाया 
अंधियारा घोर वहां पसरा 
वो कली फूट कर फूल बनी 
भौंरा फिर गुंजन छोड़े वो 
मदमस्त पड़ा था गम सुम सा !
थे कई बार बादल घेरे 
बूंदे रिम-झिम कुछ ले फुहार 
कुछ जागे सोये मधुर- मधुर
थी भीग गयी बगिया उपवन  !
नजरों ही नजरों भोर हुयी 
कोई बांग दिया कोई कुहुक उठा 
कहीं मोर नाच के मन मोहा !
सूरज फिर रजनी मोह त्याग 
चल पड़ा उजाला बरसाने 
था "भ्रमर" बंद जो कमल पड़ा 
उड़ चुपके से वो गया भाग !
आँखे थी उसकी भारी सी 
भर रात जो स्वांग रचाया था 
मधु- रस का पान किये जी भर 
अलि-कली की प्रेम कहानी को 
इस जहाँ  में अमर बनाया था !!

शुक्ल भ्रमर 
१३.११.२०११ यच पी 
-.५० पूर्वाह्न