गले मिलें या गला बचाएं- "HOLI CONTEST”
बड़े बेटे के होने पे
गली गली गाँव शहर
बजी थी बधाई
कानो को जो फाड़ गयी
अभी एक निउज आई
पत्नी बदनाम हुयी
मर्यादा-शर्मशार हुयी
ससुराल- मायके पग फटकती
खिलौने तोडती -रोज बदलती
बचपन की आदत थी
अब भी वो कायल थी
बाप ने बेटे को थोडा जगाया
होली का दिन रंग "लाल" हो आया
शिकवा शिकायत मलाल जो छाया
गले मिलें या गला बचाएं
वो गुलाल या काजल लायें
शोर था – जोर- बज रहे-
‘तासे’ –‘ढोल’-‘मृदंग’
रात में चढ़ा –‘भंग’ का ‘रंग’
किया फिर उसने ‘माँ’ को ‘बंद’
‘कैद’ कर ‘ममता’ को झकझोरा
अंगुली जो पकडाया अब तक
उसकी ‘अंगुली तोडा’
उसी ‘आँगन’ -जहाँ वो खेला
‘बाप’ को ‘घोडा’ कभी बनाया
हैवानी का -पत्ता- खेला -आज -
चढ़ा था बरछी लेकर
‘हाथी’ उसे बनाया
‘बाप’ को ‘घोंप’ –‘घोंप’ कर मारा
"आँख" -जो देखी -उसे "निकाला"
‘श्मशान’ सी होली थी ‘बदरंग’
‘चिता’ पर चढ़ी -यही क्या अंत ???
वो मरते हैं बच्चों खातिर
क्या क्या भर रख जाएँ
सात पुस्त खाती जो बैठे
बने निकम्मे
खुद भूखे मर जाएँ
कहें "भ्रमर" क्या सुनी नहीं है
पूत "कपूत" तो क्यों धन संचै
पूत "सपूत" तो क्यों धन संचै
तुम बबूल न मेरे प्यारे
कीचड़ कमल खिलाओ
शीतल जल -बचपन से डालो
"आँगन" -तुलसी -लाओ !!!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
२८.३.11
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