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Wednesday, May 23, 2012

मेह सावन की ‘बदली’ नहाने लगी


मेह सावन की ‘बदली’ नहाने लगी
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रूप पल -पल बदलती रही रात भर
चांदनी  जिस्म   से छल-छ्लाने लगी
वो छन-छन छनक आ मिली नैन से
मुझको चातक चकोरा बनाने लगी
रूपसी -प्रेयसी झिलमिलाती दिखी
जुल्फ झर- झर वहीं झहराने लगी
लाल सूरज की बिंदिया को छोड़े कभी
पूर्णिमा चाँद माथे सजाने लगी
जाने कितने सितारे नगीने जड़े
वो बदल साड़ियाँ झिलमिलाने लगी
गोरी भूरी व् काली सुनहरी कभी
टूट बिखरी कभी मन सताने लगी
पंखुड़ी फिर मिली वो कली सी बनी
फूटती फिर कली मुस्कुराने लगी
एक दूल्हा सजा था गुमसुम खड़ा
ताकती भौंहे पलकें झुकाने लगी
मोहिनी कामिनी मोरनी सी चली
घुंघरुओं की खनक-खनखनाने लगी
सरसराती हवा सिरफिरी सी चली
दामिनी -संग गरज- लपलपाने लगी
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(सभी फोटो गूगल/नेट से साभार लिया गया )
एक कर्कश गरज -दाब के मोड़ पे
वो भी हारी सिकुड़ती दिखी शीत में
बूँद रिम-झिम बरस कर जुड़ाने लगी
तृप्त जलते हुए उर को करती बढ़ी
मेह सावन की ‘बदली’ नहाने लगी
खो के अस्तित्व प्यारा सा अपना सभी
क्षीर सागर में लगता वो सोने गयी !
——————————————
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
जालंधर पंजाब
१.४०-२.३० मध्याह्न
११.०३.2012



please be united and contribute for society ....Bhramar5

3 comments:

  1. बहुत हि सुन्दर भावों को प्रभावी शब्द दिए हैं आपने.खूबसूरत रचना.....!!!

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  2. रचना तो सुंदर है ही पहला चित्र भी उतना ही अच्छा है

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  3. प्रिय संजय भाई ये बदरी काश बरस कर जिया जुड़ा जाती ..रचना आप को अच्छी लगी सुन ख़ुशी हुयी आभार -जय श्री राधे -भ्रमर ५

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