Saturday, November 19, 2011

सबसे प्यारी "जान" है तू

आइये बेटियों का स्वागत करें भेद-भाव मिटायें ...

यहाँ पढ़ें और आशीष दें उन्हें ....

Tuesday, November 15, 2011

जब अधर छुए तो कांपा तन-मन



मौसम बदला 
बदली थी जमीं !
हर रंग प्यार का बदला था 
खुशियाँ तो हर पग थीं बरसी 
पर हर कुछ नया नया सा था 
इतनी लज्जा संकोच ह्रदय 
ना जाने कैसे फूटी थी 
डर-डर के कोने में बैठी  
उडती तितली ज्यों रूठी थी 
कुछ नयी सोच कुछ सपने थे 
बादल से उड़ते हहर - हहर 
कौंधी बिजली डर भी लगता 
अंधियारा घिर ढाता था कहर 
कितने जन घूँघट खोले देखे 
आँचल लक्ष्मी थे डाल गए 
ना जाने कौन कहाँ के थे 
मै कुछ तो ना पहचान सकी 



आशीष मिला मन बाग़ - बाग़ 
प्रिय की यादों में उलझी थी 
ना काहे सूरज निशा बुलाये 
मन गोरी क्यों ना भांपे रे !
सागर में अगणित ज्वार उठे 
क्यों -चाँद - पहचाने हे !
दीपक की टिम-टिम 
गंध मधुर- रजनी -गंधा -
संग यौवन का 
बन छुई -मुई बिन छुए लरजती 
कभी सिकुड़ती खिल जाती 
ये कली थी खुलने को आतुर 
वो "भ्रमर" कहाँ पर भूला जी ?
कुछ कलियों फूलों में रम कर  
था कहीं मस्त - या सोया था 



कुछ सखियाँ आयीं हंसी गुद-गुदी
फिर तार वाद्य के छेड़ गयीं 
सिहरन फिर उठ के झंकृत तन 
मन की वीणा सुर छेड़ गयी 
खोयी सपनों में बैठी थी 
एक छुवन अधर ज्यों दौड़ गयी 
माथे की बिंदिया चमक गयी 
कुंडल कानों कुछ बोल  गए 
पाँवों के पायल छनक गए 
कंगन कर में थे डोल गए 
थी रात पूर्णिमा जगमग पर 
था चाँद बहुत शरमाया सा 
एक तेज हवा के झोंके से 
"वो" ख्वाब हमारे प्रकट हुए !
जब चिबुक उठाये नैन खुले 
नैना थे दो से चार हुए 
अठरह वर्षों के सपने में 
ना जाने क्या वे झाँक रहे !
जब अधर छुए तो कांपा तन - मन 
मदिरा के सौ सौ प्याले भर 
कामदेव रति धमके 
कुछ मन्त्र कान में बोल  गए 
ग्रीवा पर सांप सरक  कर के 
कुछ क्रोध काम विष लाये थे 
रक्तिम चेहरा यौवन रस से 
घट छलक छलक सावन बन के 
बादल बदली के खेल बहुत 
सतरंगी इंद्र धनुष जैसे 
आनंदित हो बस खोये थे !
कितनी क्रीडा फिर लिपट लिपट 
बेला कलियाँ ज्यों तरुवर पर 
बिजली कौंधी फिर गरज गरज 
बादल मदमस्त भरा पूरा 
थी तेज आंधियां मन में भी 
दीपक ना देर ठहर पाया 
अंधियारा घोर वहां पसरा 
वो कली फूट कर फूल बनी 
भौंरा फिर गुंजन छोड़े वो 
मदमस्त पड़ा था गम सुम सा !
थे कई बार बादल घेरे 
बूंदे रिम-झिम कुछ ले फुहार 
कुछ जागे सोये मधुर- मधुर
थी भीग गयी बगिया उपवन  !
नजरों ही नजरों भोर हुयी 
कोई बांग दिया कोई कुहुक उठा 
कहीं मोर नाच के मन मोहा !
सूरज फिर रजनी मोह त्याग 
चल पड़ा उजाला बरसाने 
था "भ्रमर" बंद जो कमल पड़ा 
उड़ चुपके से वो गया भाग !
आँखे थी उसकी भारी सी 
भर रात जो स्वांग रचाया था 
मधु- रस का पान किये जी भर 
अलि-कली की प्रेम कहानी को 
इस जहाँ  में अमर बनाया था !!

शुक्ल भ्रमर 
१३.११.२०११ यच पी 
-.५० पूर्वाह्न 

Wednesday, November 2, 2011

खड़ी आईने के संग जाकर


प्रिय मित्रों सजने संवरने के दिन आ गये दिवाली गयी तो रोशन कर गयी मन को तन को -अब सब वक्त को निहार लें किस मुकाम पर कौन खड़ा है क्या कौन झाँक रहा दस्तक दे रहा , वक्त के हिसाब से आओ चलें अपनी अपनी कुछ जिम्मेदारियां भी समझें और निभाएं ….आज कुछ अलग सा …..

खड़ी आईने के संग जाकर
(photo with thanks from google/net )

आँखों की वो छुअन देख के
दौड़ी दौड़ी घर आई
खड़ी आईने के संग जाकर
भर भर कर मै अंग लगायी
लहराई कुछ बल खायी
जुल्फों की बदली से छन छन
नैनों से कटि तक को देखा
देख देख कितना शरमाई
लाल हुआ चेहरा कुछ मेरा
नैन रसीले और कटीले
मद भरे जाम से मस्त पड़ी
खुद के तीर जो सह ना पाई
उनसे शिकवा क्या कर दूं मै
कैसे उनसे पूंछूं जाकर
नैन गडाए क्या देखे वे
जिसको क्षण भर झेल ना पायी
जान गयी पहचान गयी मै
“भ्रमर” है क्यों उड़ उड़ के आता
सुबह शाम घेरे यों रहता
गुन-गुन गुन -गुन मन क्या गुनता
कलि फूल पर hai क्यों मरता
मौसम बदल गया अब जाना
गदरायी डालें हैं माना
बगिया महक गयी फल आये
कोयल कूक कूक कर गाये
पापी पपीहा बोल पड़ा है
पीऊ पीऊ दिल में झनकाये
मोर नाच अब झूम रिझाये
दर्पण क्यों ना सच कह जाए
हुयी सयानी समझ में आये
तुम समझो सब कहा न जाए
जिय की बात हिया रह जाए !!
शुक्ल भ्रमर ५
२.१०.२०११ यच पी