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Thursday, June 5, 2014

जिया जरे दिन रात हे पीऊ

जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
                                                         ( photo with thanks from google/net)
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भोर उठूँ जब सेजिया खाली
गहरी सांस ले मन समझाऊँ
दुल्हन जब कमरे से झाँकू
पल-पल नैन मिलाती
अब हर आहट बाहर धाती
'शून्य' ताक बस नैन भिगोती
फफक -फफक मै रो पड़ती पिय !
फिर जी को समझाती
जी की शक्ति आधी होती
दुर्बल काया कैसे दिवस बिताऊं ?
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
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वदन जले गर्मी दिन उस पर
भीगी जाऊं कितनी बार नहाऊँ
पुरवैया भी जिया जलाती
पछुआ सी हर अंग भिगोती
कब अंगना कब बाहर जाऊं
घूम-झाँक फिर मन मसोस घर आऊँ
नैन मिले ना कान्हा तेरा
बावरा मनवा कैसे मन समझाऊँ
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
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कोयल स्वर भी कर्कश लागे
पपीहा पीऊ पीऊ चिल्लाये
बाग़ गली कुंजन बौरों की
सुषमा मन ना भाये
ना श्रृंगार ना बनना -ठनना
बौराई मै इत-उत धाऊँ
नैन की चितवन छेड़-छाड़ सब
मुझे कचोटेँ कुछ भी भूल ना पाऊँ
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
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सास -ससुर की सेवा करती
कभी रसोई साफ़ -सफाई
दिन भर मन भरमाऊँ
खालीपन खाता मेरे मन को
सोच-सोच हे ! पल-पल सिहरी जाऊं
दीपक -बाती जिया जरायें
सेज -सुहाग तो अति तड़पाये
कुम्हलाये अब फूल अरे दिल !
बन बहार हरियाली आ जा
सावन आये -अब तो ना रह पाऊँ
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
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मौलिक व अप्रकाशित" 
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर ५ '
कुल्लू हिमाचल
भारत
४.५०-५.१८ पूर्वाह्न
३०.५.२०१४



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Saturday, May 17, 2014

कौन हो तुम प्रेयसी ?

कौन हो तुम प्रेयसी ?

कौन  हो  तुम  प्रेयसी ?
कल्पना, ख़ुशी या गम
सोचता हूँ मुस्काता हूँ,
हँसता हूँ, गाता हूँ ,
गुनगुनाता हूँ
मन के 'पर' लग जाते हैं
घुंघराली  जुल्फें
चाँद सा चेहरा
कंटीले कजरारे नैन
झील सी आँखों के प्रहरी-
देवदार, सुगन्धित काया  
मेनका-कामिनी,
गज गामिनी
मयूरी सावन की घटा
सुनहरी छटा
इंद्रधनुष , कंचन काया
चित चोर ?
अप्सरा , बदली, बिजली
गर्जना, वर्जना
या कुछ और ?
निशा का गहन अन्धकार
या स्वर्णिम भोर ?
कमल के पत्तों पर ओस
आंसू, ख्वाबों की परी सी ..
छूने जाऊं तो
सब बिखर  जाता है
मृग तृष्णा सा !
वेदना विरह भीगी पलकें
चातक की चन्दा
ज्वार- भाटा
स्वाति नक्षत्र
मुंह खोले सीपी सा
मोती की आस
तन्हाई पास
उलझ जाता हूँ -भंवर में
भवसागर में
पतवार पाने को !
जिंदगी की प्यास
मजबूर किये रहती है
जीने को ...
पीने को ..हलाहल
मृग -मरीचिका सा
भरमाया फिरता हूँ
दिन में तारे नजर आते हैं
बदहवाश अधखुली आँखें
बंद जुबान -निढाल -
सो जाता हूँ -खो जाता हूँ
दादी की परी कथाओं में
गुल-गुलशन-बहार में
खिलती कलियाँ लहराते फूल
दिल मोह लेते हैं
उस 'फूल' में
मेरा मन रम जाता है
छूने  बढ़ता हूँ
और सपना टूट जाता है
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
७-७.२० मध्याह्न
२३.०२.२०१४
करतारपुर , जालंधर , पंजाब





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Sunday, September 30, 2012

उँगलियों के इशारे नचाने लगी


उँगलियों के इशारे नचाने  लगी
उम्र की सीढ़ियों कुछ कदम ही बढे
अंग -प्रत्यंग शीशे झलकने लगे
वो खुमारी चढ़ी  मद भरे जाम से
नैन प्याले तो छल-छल छलकने लगे
लालिमा जो चढ़ी गाल टेसू हुए
भाव भौंहों से पल-पल थिरकने  लगे
जुल्फ नागिन से फुंफकारती सी दिखे
होश-मदहोशी में थे बदलने लगे
नींद आँखों से गायब रही रात भर
करवटें रात भर सब बदलते रहे
तिरछी नैनों की जालिम अदा ऐ सनम
बन सपन अब गगन में उड़ाती फिरे
पर कटे उस पखेरू से हैं कुछ पड़े
गोद में आ गिरें सब तडफने  लगे
सुर्ख होंठों ने तेरे गजब ढा दिया
प्यास जन्मों की अधरों पे आने लगी
दिल धडकने लगा मन मचलने  लगा
रोम पुलकित तो शोले दहकने लगे
पाँव इत-उत चले खुद बहकने लगे
कोई चुम्बक लगे खींचता हर कदम
पास तेरे 'भ्रमर' मंडराने लगे
देख सोलह कलाएं गदराया जिसम
नैन दर्पण सभी खुद लजाने लगे
मंद मुस्कान तेरी कहर ढा रही
कभी अमृत कभी विष परसने लगी
भाव की भंगिमा में घिरी मोहिनी
मोह-माया के जंजाल फंसने लगी
तडफडाती  रही फडफडाती  रही
दर्द के जाल में वो फंसी इस कदर
वेदना अरु विरह के मंझधार में
नाव बोझिल भंवर डगमगाने लगी
नीर ही नीर चहुँ ओर डूबती वो कभी
आस मन में रखे - उतराने लगी
जितना खोयी थी- पायी- भरी सांस फिर
उड़ के तितली सी- सब को सताने लगी
मोरनी सी थिरकती बढ़ी जा रही
उँगलियों के इशारे नचाने लगी
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'
मुरादाबाद-सहारनपुर उ प्र.
१०-१०.४५ मध्याह्न
१०.०३.१२



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Sunday, February 26, 2012

नैन मिला लो देख भले लो

नैन मिला लो देख भले लो
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ये “फूल” अरे तुम ना छेड़ो
गुपचुप- हंसने- मुस्काने दो
प्रेम की पुस्तक खुली आज है
जी भर पाठ पढ़ाने दो
नैन मिला लो देख भले लो
भौंरे संग हंसने गाने दो
मदमस्त थिरकता पथ अपने
कांटे संग इसे निभाने दो
नैन मिला लो देख भले लो
भौंरे संग हंसने गाने दो …..
————————————
कली -भ्रमर का साथ पुराना
कितने सपने- ताना बाना
खुश्बू पराग मधु रस ले ले
दुनिया को इसका झूंठलाना
ये पतंग है खुले आसमां
मुक्त ह्रदय उड़ जाने दो
इस डाली के संग कुछ दिन तो
हरा भरा रह जाने दो
नैन मिला लो देख भले लो
भौंरे संग हंसने गाने दो…
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तुझसे कितने जोगी भोगी
भगवा-गेरुआ- मन के रोगी
हैं रोज लगाते सौ सौ फेरा
सुखद ताजगी नैनों में भर
बैठे ताकें – डाले डेरा
रंग बिरंगी तितली के संग
उड़ उड़ कलरव करने दो
पीहर हरियाली खुशहाली
इसको कुछ इतराने दो
नैन मिला लो देख भले लो
भौंरे संग हंसने गाने दो …
——————————–
शीतल संध्या -अन्धकार है
गुमसुम ख्वाबों में डूबा है
ओस के मोती जुल्फ-अधर -हो
वदन चूमते झर झर झरते
चातक चोर कवि छिप देखें
रिमझिम सावन की फुहार में
जी भर – इसे नहाने दो
नैन मिला लो देख भले लो
भौंरे संग हंसने गाने दो ….
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मलयानिल के झकझोरों से
कांटे- कीड़ों– से-लड़ने दो
नरम धुप या जेठ दुपहरी
मन भर तुम मुरझाने दो
झंझावात आँधियों से कल
धुल धूसरित हो हो लड़ना
नैन नीर से दिल से सींचो
प्रेम के पर फ़ैलाने दो
नैन मिला लो देख भले लो
भौंरे संग हंसने गाने दो …..
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
७.४५-८.०० पूर्वाह्न २५.२.१२
करतारपुर जल पी बी



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Wednesday, November 2, 2011

खड़ी आईने के संग जाकर


प्रिय मित्रों सजने संवरने के दिन आ गये दिवाली गयी तो रोशन कर गयी मन को तन को -अब सब वक्त को निहार लें किस मुकाम पर कौन खड़ा है क्या कौन झाँक रहा दस्तक दे रहा , वक्त के हिसाब से आओ चलें अपनी अपनी कुछ जिम्मेदारियां भी समझें और निभाएं ….आज कुछ अलग सा …..

खड़ी आईने के संग जाकर
(photo with thanks from google/net )

आँखों की वो छुअन देख के
दौड़ी दौड़ी घर आई
खड़ी आईने के संग जाकर
भर भर कर मै अंग लगायी
लहराई कुछ बल खायी
जुल्फों की बदली से छन छन
नैनों से कटि तक को देखा
देख देख कितना शरमाई
लाल हुआ चेहरा कुछ मेरा
नैन रसीले और कटीले
मद भरे जाम से मस्त पड़ी
खुद के तीर जो सह ना पाई
उनसे शिकवा क्या कर दूं मै
कैसे उनसे पूंछूं जाकर
नैन गडाए क्या देखे वे
जिसको क्षण भर झेल ना पायी
जान गयी पहचान गयी मै
“भ्रमर” है क्यों उड़ उड़ के आता
सुबह शाम घेरे यों रहता
गुन-गुन गुन -गुन मन क्या गुनता
कलि फूल पर hai क्यों मरता
मौसम बदल गया अब जाना
गदरायी डालें हैं माना
बगिया महक गयी फल आये
कोयल कूक कूक कर गाये
पापी पपीहा बोल पड़ा है
पीऊ पीऊ दिल में झनकाये
मोर नाच अब झूम रिझाये
दर्पण क्यों ना सच कह जाए
हुयी सयानी समझ में आये
तुम समझो सब कहा न जाए
जिय की बात हिया रह जाए !!
शुक्ल भ्रमर ५
२.१०.२०११ यच पी