Saturday, November 15, 2014

बेवफा

बेवफा ( खेल समझकर दिल क्यों  तोड़ जाते हैं वे ) 
घर फूटा मन टूटा बिच्छिन्न हुए अरमान 
मैंने पाया विश्वास गया
ठेस लगी टूटा अभिमान 
एकाकी जीवन रोता दिल
नासूर बनी खिलती कलियाँ 
जल जाएँ न सुन विरह गीत 
मिट जाएँ न अभिशप्तित परियां 
लूट मरोड़ मुकर क्यों जाते
ऐ सनम जो तुझसे दिल न लगाते
बाँध ले घुंघरू तज गेह नेह
सुख भर ले नित दिल टूट देख
ना धूमिल कर छवि नारी की
दिल दे न चढ़े बलि बेचारी
प्यार बना आधार बचाए घर कितने
सोने पर सोना छोड़
ले देख जरा तुझसे कितने

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
राय बरेली - प्रतापगढ़

७.९.१९९३ 



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Sunday, August 24, 2014

हे री ! चंचल


  • हे री ! चंचल

    • हे री ! चंचल
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    (photo with thanks from google/net)
    जुल्फ है कारे मोती झरते
    रतनारे मृगनयनी नैन
    हंस नैन हैं गोरिया मेरे
    'मोती ' पी पाते हैं चैन
    आँखें बंद किये झरने मैं
    पपीहा को बस 'स्वाति' चैन
    लोल कपोल गाल ग्रीवा से
    कँवल फिसलता नाभि मेह
    पूरनमासी चाँद चांदनी
    जुगनू मै ताकूँ दिन रैन
    धूप सुनहरी इन्द्रधनुष तू
    धरती नभ चहुँ दिशि में फ़ैल
    मोह रही मायावी बन रति
    कामदेव जिह्वा ना बैन
    डोल रही मन 'मोरनी' बन के
    'दीप' शिखा हिय काहे रैन
    टिप-टप  जल बूंदों की धारा
    मस्तक हिम अम्बर जिमि हेम
    क्रीडा रत बदली ज्यों नागिन
    दामिनि हिय छलनी चित नैन
    कम्पित अधर शहद मृदु बैन -
    चरावत सचराचर दिन रैन
    सात सुरों संग नृत्य भैरवी
    तड़पावत क्यों भावत नैन ?
    हे री ! चंचल शोख विषामृत
    डूब रहा , ना पढ़ आवत तोरे नैन !
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    सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'५
    11-11.48 P.M.
    26.08.2013
    कुल्लू हिमाचल 
    दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

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Thursday, June 5, 2014

जिया जरे दिन रात हे पीऊ

जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
                                                         ( photo with thanks from google/net)
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भोर उठूँ जब सेजिया खाली
गहरी सांस ले मन समझाऊँ
दुल्हन जब कमरे से झाँकू
पल-पल नैन मिलाती
अब हर आहट बाहर धाती
'शून्य' ताक बस नैन भिगोती
फफक -फफक मै रो पड़ती पिय !
फिर जी को समझाती
जी की शक्ति आधी होती
दुर्बल काया कैसे दिवस बिताऊं ?
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
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वदन जले गर्मी दिन उस पर
भीगी जाऊं कितनी बार नहाऊँ
पुरवैया भी जिया जलाती
पछुआ सी हर अंग भिगोती
कब अंगना कब बाहर जाऊं
घूम-झाँक फिर मन मसोस घर आऊँ
नैन मिले ना कान्हा तेरा
बावरा मनवा कैसे मन समझाऊँ
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
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कोयल स्वर भी कर्कश लागे
पपीहा पीऊ पीऊ चिल्लाये
बाग़ गली कुंजन बौरों की
सुषमा मन ना भाये
ना श्रृंगार ना बनना -ठनना
बौराई मै इत-उत धाऊँ
नैन की चितवन छेड़-छाड़ सब
मुझे कचोटेँ कुछ भी भूल ना पाऊँ
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
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सास -ससुर की सेवा करती
कभी रसोई साफ़ -सफाई
दिन भर मन भरमाऊँ
खालीपन खाता मेरे मन को
सोच-सोच हे ! पल-पल सिहरी जाऊं
दीपक -बाती जिया जरायें
सेज -सुहाग तो अति तड़पाये
कुम्हलाये अब फूल अरे दिल !
बन बहार हरियाली आ जा
सावन आये -अब तो ना रह पाऊँ
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
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मौलिक व अप्रकाशित" 
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर ५ '
कुल्लू हिमाचल
भारत
४.५०-५.१८ पूर्वाह्न
३०.५.२०१४



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Friday, May 30, 2014

मुस्कुराती दामिनी सी छल रही हो...


(photo with thanks form google/net)

जुल्फ हैं लहराते तेरे बदली जैसे
और तुम …..
मुस्कुराती दामिनी सी छल रही हो...
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केशुओं से झांकते तेरे नैन दोनों
प्याले मदिरा के उफनते लग रहे
काया-कंचन ज्यों कमलदल फिसलन भरे
नैन-अमृत-मद ये तेरा छक पियें
बदहवाशी मूक दर्शक मै खड़ा
तुम इशारों से ठिठोली कर रही हो
जुल्फ हैं लहराते तेरे बदली जैसे
और तुम ..
मुस्कुराती दामिनी सी छल रही हो
इस सरोवर में कमल से खेलती
चूमती चिकने दलों ज्यों हंसिनी
नीर झर-झर तेरे लव से यों झरें
चूम कर मोती बनाऊं मन करे
मै हूँ चातक तू है चंदा दूर क्यों
छटपटाता चांदनी से मन जले
जुल्फ हैं लहराते तेरे बदली जैसे
और तुम ..
मुस्कुराती दामिनी सी छल रही हो
इस सरोवर में झुकी जब खेल खेले लहर से
देख सब कुछ कांपते अधरों से सारे ये कमल
तू कमलिनी राज सुंदरता करे दिखता यहां
तार वीणा ....मेरा मन झंकृत करे
होश में आऊँ तो गाऊँ प्रेम-धुन मै री सखी
काश नजरें हों इनायत इस नजर से आ मिलें
जुल्फ हैं लहराते तेरे बदली जैसे
और तुम ..
मुस्कुराती दामिनी सी छल रही हो
भोर की स्वर्णिम किरण तू स्वर्ण सी
है सुनहली सर की आभा स्वर्ग सी
देव-मानव सब को प्यारी अप्सरा सी
नृत्य छन-छन पग के घुँघरू जब करें
मन मयूरा नाचता विह्वल सा ये
मोरनी सी तू थिरकती क्यों फिरे
जुल्फ हैं लहराते तेरे बदली जैसे
और तुम ..
मुस्कुराती दामिनी सी छल रही हो
.

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर '५
कुल्लू हिमाचल २४.५.२०१४
५.४५-६.१० पूर्वाह्न


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Saturday, May 17, 2014

कौन हो तुम प्रेयसी ?

कौन हो तुम प्रेयसी ?

कौन  हो  तुम  प्रेयसी ?
कल्पना, ख़ुशी या गम
सोचता हूँ मुस्काता हूँ,
हँसता हूँ, गाता हूँ ,
गुनगुनाता हूँ
मन के 'पर' लग जाते हैं
घुंघराली  जुल्फें
चाँद सा चेहरा
कंटीले कजरारे नैन
झील सी आँखों के प्रहरी-
देवदार, सुगन्धित काया  
मेनका-कामिनी,
गज गामिनी
मयूरी सावन की घटा
सुनहरी छटा
इंद्रधनुष , कंचन काया
चित चोर ?
अप्सरा , बदली, बिजली
गर्जना, वर्जना
या कुछ और ?
निशा का गहन अन्धकार
या स्वर्णिम भोर ?
कमल के पत्तों पर ओस
आंसू, ख्वाबों की परी सी ..
छूने जाऊं तो
सब बिखर  जाता है
मृग तृष्णा सा !
वेदना विरह भीगी पलकें
चातक की चन्दा
ज्वार- भाटा
स्वाति नक्षत्र
मुंह खोले सीपी सा
मोती की आस
तन्हाई पास
उलझ जाता हूँ -भंवर में
भवसागर में
पतवार पाने को !
जिंदगी की प्यास
मजबूर किये रहती है
जीने को ...
पीने को ..हलाहल
मृग -मरीचिका सा
भरमाया फिरता हूँ
दिन में तारे नजर आते हैं
बदहवाश अधखुली आँखें
बंद जुबान -निढाल -
सो जाता हूँ -खो जाता हूँ
दादी की परी कथाओं में
गुल-गुलशन-बहार में
खिलती कलियाँ लहराते फूल
दिल मोह लेते हैं
उस 'फूल' में
मेरा मन रम जाता है
छूने  बढ़ता हूँ
और सपना टूट जाता है
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
७-७.२० मध्याह्न
२३.०२.२०१४
करतारपुर , जालंधर , पंजाब





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Tuesday, May 13, 2014

होंठ रसीले मधु टपके ज्यों



चन्दन सी खुशबू है तेरी
तभी साँप दिल लोट रहे
जुल्फ का स्याह अँधेरा देखे
निशा-निशाचर आते हैं
नैन कंटीले मदिरा प्याला
मदमस्त जाम भर जाते हैं
गाल गुलाबी सूर्य किरण से
व्याकुल जीवन कुछ पाते हैं


होंठ रसीले मधु टपके ज्यों
पथ-पथिक भरे रस जाते हैं
फूल सा कोमल चेहरा दमके
तभी 'भ्रमर' मंडराते हैं
तू गुलाब अप्सरा सी झूमे
कांटे - दामन छू जाते हैं
कंचन कामिनि मेनका बनी तू
“मोह” पाश पंछी सारे फंस जाते हैं
डाले दाना क्यों भ्रमित किये हे !
दिल लुटा चैन खो बदहवाश वे जाते हैं
प्यारा अपना घर - प्रेम भी भूले
‘मायावी’ दुनिया चक्कर यहीं लगाते हैं


सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर '
कुल्लू हिमाचल भारत


03-मई -२०१४ , 7-30-8.00 पूर्वाह्न






आइये एक बनें नेक बनें  एकसूत्र मे बँधें और देश हित मे योगदान देते चलें
माधुरी 

Sunday, April 27, 2014

जन्म दिन मुबारक सत्यम

जन्म दिन मुबारक सत्यम






प्रिय मेरे नन्हे मुन्ने दोस्तों आदरणीय और प्रिय मित्र गण आज हमारे सुपुत्र  गिरीश कुमार शुक्ल 'सत्यम' का जन्मदिन है इस शुभ अवसर पर जैसे हम दूर दूर से दुवाए दे आज सत्यम का जन्म दिन मना  रहे हैं आप के लिये ये केक और मुख मिठास का यहॉं अयोजन है क़ृपया अपना स्नेहिल आशीष अपने  सत्यम को प्रदान करें आइये बच्चों को भरपूर प्रेम दें और अपनी इस भावी पीढ़ी को अपनी प्यारी संस्कृति और इस भारत भू के प्रेम , प्यार से भर दे ताकि इस भारत भू की रज मे ये पौधे खिलें खिलखिलाएं और इस अपने चमन को अपने सत्कर्मों से गुलजार करें गुल गुलशन महके और हम सब इस फुलवारी का आनन्द ले सकें

आप सब का बहुत बहुत आभार 



प्रिय सत्यम ये ख़ुशी का दिन बार बार यूं ही आये प्रभु तुम्हे दीर्घायु करे खुशियाँ फलें फूलें इस ऑगन मे , अपने प्रेम सुकर्मों से सब का मन जीतो सब के प्यारे बनो समाज़ मे अपने अस्तित्व को अपने नाम की छाप बनाओ जन्म दिन मुबारक हो

पिताश्री और समस्त परिवार
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
प्रतापगढ़ भारत

बच्चे मन के सच्चे हैं फूलों जैसे अच्छे हैं मेरी मम्मा कहती हैं तुझसे जितने बच्चे हैं सब अम्मा के प्यारे हैं --



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Monday, February 24, 2014

जो मुस्का दो खिल जाये मन


जो मुस्का दो खिल जाये मन
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खिला खिला सा चेहरा  तेरा
जैसे लाल गुलाब
मादक गंध जकड़ मन लेती
जन्नत है आफताब
बल खाती कटि सांप लोटता
हिय! सागर-उन्माद
डूबूं अगर तो पाऊँ मोती
खतरे हैं बेहिसाब
नैन कंटीले भंवर बड़ी है
गहरी झील अथाह
कौन पार पाया मायावी
फंसे मोह के पाश
जुल्फ घनेरे खो जाता मै
बदहवाश वियावान
थाम लो दामन मुझे बचा लो
होके जरा मेहरबान
नैन मिले तो चमके बिजली
बुत आ जाए प्राण
जो मुस्का दो खिल जाए मन
मरू में आये जान
गुल-गुलशन हरियाली आये
चमन में आये बहार
प्रेम में शक्ति अति प्रियतम हे!
जाने सारा जहान
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
२०.०२.२०१४
४.३०-५ मध्याह्न
करतारपुर जालंधर पंजाब



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