चन्दन सी खुशबू
है तेरी 
तभी साँप दिल लोट रहे
जुल्फ का स्याह
अँधेरा देखे 
निशा-निशाचर आते हैं
नैन कंटीले मदिरा प्याला
मदमस्त जाम भर
जाते हैं
गाल गुलाबी सूर्य किरण
से 
होंठ रसीले मधु टपके
ज्यों 
पथ-पथिक भरे
रस जाते हैं
फूल सा कोमल
चेहरा दमके
तभी 'भ्रमर' मंडराते हैं
तू गुलाब अप्सरा सी
झूमे 
कांटे - दामन छू
जाते हैं 
कंचन कामिनि मेनका बनी
तू 
“मोह” पाश पंछी
सारे फंस जाते
हैं
डाले
दाना क्यों भ्रमित
किये हे !
दिल लुटा चैन
खो बदहवाश वे
जाते हैं
प्यारा अपना घर
- प्रेम भी भूले
‘मायावी’ दुनिया चक्कर यहीं
लगाते हैं
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर
'५ 
कुल्लू हिमाचल भारत 
03-मई -२०१४
, 7-30-8.00 
पूर्वाह्नआइये एक बनें नेक बनें एकसूत्र मे बँधें और देश हित मे योगदान देते चलें
माधुरी
 


 
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